◆सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक मैं ये समझा कि मयख़ाने पे बदली छाई जाती है...
◆लोग कहते हैं रात बीत चुकी मुझ को समझाओ!
मैं शराबी हूँ
~साग़र सिद्दीक़ी
◆दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम
~नज़ीर अकबराबादी
◆होश में हो के भी साक़ी का भरम रखने को लड़खड़ाने की हम अफ़्वाह......उड़ा देते हैं
~अजय सहाब
◆मयख़ाने मे आऊंगा मगर पिऊंगा नहीं, ऐ साकी ये शराब मेरा गम मिटाने की औकात नही रखती!
◆जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले ऐसी लज़्ज़त कहाँ साक़ी की शराबों में मिले...
~इमाम आज़म
[अज़ाबों=पीड़ाओं]
◆मय-कशो मय की कमी बेशी पे नाहक़ जोश है
ये तो साक़ी जानता है किस को कितना होश है
~नातिक़ लखनवी
[नाहक़=बेवजह]
◆मय-कशी से नजात मुश्किल है
मय का डूबा कभी उभर न सका
~जलील मानिकपूरी
[नजात=छूट]
◆मय-कदे की तरफ़ चला ज़ाहिद
सुब्ह का भूला शाम घर आया
~कलीम आजिज़
[ज़ाहिद=बुरे कामों से दूर रहने वाला इंसान]
◆नतीजा बेवजह महफ़िल से उठवाने का क्या होगा, ना होंगे साकी हम तो तेरे मयखाने का क्या होगा।
◆आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
एक छलकते साग़र में मय भी है मय-ख़ाना भी
~साग़र निज़ामी
◆इन तल्ख़ आँसुओं को न यूँ मुँह बना के पी
ये मय है ख़ुद-कशीद इसे मुस्कुरा के पी
◆कैसे बंद हुआ मय-ख़ाना अब मालूम हुआ
पी न सका कम-ज़र्फ़ ज़माना अब मालूम हुआ
~हफ़ीज़ जालंधरी
[कम-ज़र्फ़=मूर्ख]
◆मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
हाथ में अपने अगर जाम लिया है तुम ने
~आल-ए-अहमद सूरूर
◆तिश्न नज़रें मिली शोख नज़रों से जब मय बरसने लगी जाम भरने लगे... साक़िया आज तेरी ज़रूरत नहीं बिन पिये बिन पिलाये खुमार आ गया...
~अली सरदार ज़ाफरी
[तिश्न=प्यास भरी,खुमार=नशा]
◆मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थाम
नज़रों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला
~नज़ीर अकबराबादी
◆मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
एक साग़र से दो आलम हों फ़रामोश मुझे
~रिन्द लखनवी
◆एक तेरा ही नशा हमें मात दे गया वरना… मयखाना भी हमारे हाथ जोड़ा करता था…
होश आने का था जो ख़ौफ़ मुझे
मय-कदे से न उम्र भर निकला
~जलील मानिकपूरी
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